शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

अदब के शहर में ( लखनऊ के लिये )

बच्चों की किसी फ्रेंड ने फेसबुक पर लिखा ...मुस्कुराइए के ये लखनऊ है ...बस यहीं से इस रचना का जन्म हुआ ....


मुस्कुराइए के ये अदब है
अदब के शहर में अदब से पेश आइये

ये वो शहर है , अजनबी भी
लगता अपना सा ही , जान जाइए

मुहब्बतों में नहीं होता तेरा मेरा
सुकून दिल का पहचान जाइए

मन्जिल भी सबकी एक ही है
राहों का पता जान जाइए

वफ़ा की वादियों में चलना है
तहज़ीबे-इश्क पर परवान जाइए

गुलाबी रँगत है , तहज़ीबे गँगा-जमनी
झुका के सर कुर्बान जाइए

आए हैं सैर को नवाबों के शहर में
गुलाबों की तरह यूँ मुस्कुराइए

लगा के देखिये चेहरे पे दो इँच चौड़ी मुस्कान
जिगर में उतर कर , राह चलतों को अपना बनाइये