गुरुवार, 29 जुलाई 2010

घर से मन्दिर की दूरी

घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो कुछ यूँ कर लें
चन्द रोते हुए बच्चों को हँसाया जाये
कुछ इसी तर्ज़ पर ( यूँ तो बहुत चुप रहती हूँ मैं , मगर मेरी लेखनी को सच बोलने की बीमारी है ) । .......

घर से मन्दिर की दूरी तय कर लें
चलो आज किसी का भी दिल न दुखायें

कर्म बन जाते हैं पूजा ही
जो किसी किस्मत को सँवार आयें

न फुर्सत है न चाहत ही है
कभी खुद से भी मिल आयें

भीड़ में भी तन्हा ही हैं
चन्द लम्हें किसी को सुन आयें

कितना बोलती है ये , चलो
यादों की गठरी को कहीं छोड़ आयें

रविवार, 18 जुलाई 2010

साँस-साँस दुआ ही हो

कितनी ही टिप्पणियाँ और कितनी ही रचनाएं पढ़ी जाने के बाद नई रचनाओं का जन्म होता है । निचली पोस्ट ' सखी सी ही ' पर पहली टिप्पणी क्षमा जी की , उन्होंने लिखा कि किसी की लिखी हुई ये पंक्तियाँ याद आ गईं ।
हर रूह में इक गम छुपा लगे है मुझे
ज़िन्दगी तू इक बद-दुआ-सी लगे है मुझे

बस यहीं से जन्म हुआ इन पंक्तियों का

गम लाख हों सीने में मगर जिन्दगी बददुआ न हो
कडवे घूँट पीकर भी , साँस-साँस दुआ ही हो

बड़े जतनों से माली ने पाला हो जिसे
वो नाजुक सी बेलें फूलों की हमनवाँ ही हों

नीम के पेड़ पर चढ़ कर भूले अपना भी पता
रास आया तो नहीं खिली हुई मगर वफ़ा ही हो

हवाओं में बिखर या खुशबू से लिपट
दूर फ़िज़ाओं में बुलाता हुआ वो अपना पिया ही हो

सैलाब को मोड़ें तो सीँचे हर कोई
खेत-खलिहानों में उगती हुई फसल नगमा ही हो

सोमवार, 5 जुलाई 2010

सखी सी ही

वक़्त का चेहरा भी है पहचाना हुआ
जिन्दगी तू भी है सखी सी ही


छलकती हो चाहे जिन्दगी कितनी
नजर में है चाहत की कमी सी ही

गले लगाऊँ किसे और रूठूँ किस से
हर आँख दूसरी में है नमी सी ही

कल के हिस्से का हमें आज नहीं मिलना है
वक़्त के हाथ में है खुदाई सी ही